माँ के घुटनों का दर्द।। हिन्दी कहानी। हिन्दी कहानियाँ। Hindi kahani Hindi kahaniyaa।।Nayi hindi kahaniya।। Emotional Stories।। Hindi story ।। Hindi Stories।।



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कभी-कभी हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि सबसे ज़रूरी रिश्ते पीछे ज़िंदगी की भागदौड़ में हम अक्सर उन लोगों को नजरअंदाज़ कर देते हैं, जिन्होंने हमें चलना सिखाया। माँ—जो हर दर्द छुपा लेती हैं, हर बार इंतज़ार कर लेती हैं, और फिर भी शिकायत नहीं करतीं।
यह कहानी एक बेटी की है जो अपनी माँ के लिए बहुत कुछ बन गई, लेकिन वो कुछ पल नहीं दे पाई, जो सबसे ज़्यादा जरुरी थे।





आईटी इंजीनियर बनने का सपना मैंने बहुत मेहनत से पूरा किया। शहर की एक बड़ी कंपनी में जॉब लगी थी। जिंदगी तेज़ रफ्तार में चल रही थी—डेडलाइन, मीटिंग, प्रोजेक्ट्स, और ढेर सारी ज़िम्मेदारियाँ।
ऊँची नौकरी, बड़ा ऑफिस, और हर दिन नए टारगेट्स। दिन-रात काम में ऐसी उलझ गई थी कि रिश्ते सिर्फ़ कॉल लॉग में रह गए थे —



माँ गाँव में अकेली रहती थीं। पापा को गुज़रे कई साल हो गए थे। फोन पर माँ अक्सर कहती थीं,
"बेटा, एक बार घर आ जा, कुछ ज़रूरी बात करनी है।"


और मैं हर बार कहती,
"अभी टाइम नहीं है माँ, इस वीक मीटिंग्स बहुत हैं। अगली छुट्टी में पक्का आऊंगी।"


पर अगली छुट्टी कभी आई ही नहीं। माँ की बातें भी धीरे-धीरे उन अनपढ़े मैसेजों की तरह हो गईं, जो 'बाद में पढ़ने' के चक्कर में कभी नहीं पढ़े जाते।


कई महीने यूँ ही निकल गए।


आख़िरकार, एक दिन मैंने सोचा, बहुत हो गया, अब माँ से मिलना ही चाहिए। ट्रैन पकड़ी , और सीधे उस पुराने घर की ओर चल पड़ी जहाँ मेरी परवरिश हुई थी।


दरवाज़ा खोलते ही माँ का चेहरा खिल उठा।
"आ गई मेरी बेटी," उन्होंने मुझे गले से लगा लिया।
मैं मुस्कुरा दी,
घर तो पहुंच कर भी में घर ना पहुंची थी। मेरे दिमाग़ में अभी भी ऑफिस ही था। कैसे अगले मीटिंग में क्या बताना है यही सब घूम रहा था।




माँ ने बड़े प्यार से मेरे लिए खाना बनाया। गरम रोटियाँ, मेरी पसंद की सब्ज़ी, और मीठे में हलवा भी।


मैं खाने की मेज़ पर बैठी ही थी कि अचानक ऑफिस से कॉल आ गया।


"इंपॉर्टेंट क्लाइंट मीटिंग है," बॉस की आवाज़ थी।
मैं उठी, लैपटॉप खोला, और माँ से कहा, "थोड़ी देर में खा लूंगी, माँ।"


माँ चुपचाप वापस रसोई में चली गईं। मैं मीटिंग में लग गई।


रात को बहुत थक गई थी, सोचा माँ से कल सुबह बात कर लूंगी।
रात को मीटिंग काफी देर तक चली जिस कारण लेट सोई तो सुबह जल्दी उठी नहीं।
माँ नें भी नहीं उठाया, माँ को लगा होगा की बेटी इतने दिनों बाद आयी है तो कम से कम 1 पूरा दिन तो रुकेगी, लेकिन उन्हें कहा पता था की रात को ही सुबह जानें का प्लान बन गया था।




बस में फूल स्पीड में फटाफट तैयार होकर निकल गई माँ को जल्दी जल्दी में बाय बोला।


ऑफिस में थोड़ा लेट पहुंची पर जब तक में पहुंची तब तक मीटिंग शुरू नहीं हुई थी। बस में मीटिंग में बैठी औऱ अपना काम शुरू किया औऱ ख़त्म किया.


सबकुछ अच्छे से हो गया जब लंच का समय हुआ तब
अचानक माँ का चेहरा आँखों के सामने आ गया—वो चुपचाप रोटियाँ सेंक रही थीं, मेरी थाली में खाना परोस रही थीं, और मैं... मैं तो ठीक से उनकी ओर देख भी नहीं पाई थी।
न बात की, न उनकी बात सुनी।


मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया। यह बात मुझे समझ आयी की पहले मैंने मेरी माँ पर ध्यान नहीं दिया, इसका मतलब तो यह हुआ की जब मेरा सबकुछ ख़त्म होगा तब में उनके बारे में सोचूंगी यानि माँ इम्पोर्टेन्ट नहीं है।


खाना के पहले ही मैंने माँ को फोन किया,
"माँ, आप क्या बताना चाह रही थीं?"
माँ नें पहले यही सवाल किया, खाना खाया तुने सुबह भी जल्दी चली गई थी बिना कुछ खाये।


मैंने फिर कहा माँ आपको कुछ बात करना था ना क्या हुआ बताओ।


माँ थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोलीं, "कुछ नहीं बेटा, बस चलने में थोड़ी तकलीफ़ हो रही है, घुटने दर्द कर रहें है सोचा किसी डॉक्टर को दिखा दूँ। पर अब कोई बात नहीं, जब तू फिर आएगी तब देख लेंगे।"


उनकी आवाज़ में कोई शिकायत नहीं थी,


मैंने फोन रखा, और मेरी आँखों से आँसू बहने लगे।
पूरा दिन मैंने उनकी ओर देखा ही नहीं। मुझे पता भी नहीं चला की माँ ठीक से चल नहीं पा रही है। उनका चहेरा भी मैंने ठीक से नहीं देखा।


उस दिन मैंने ऑफिस में छुट्टी ली, ट्रेन पकड़ी और सीधे माँ के पास चली गई।


इस बार मैं बस मिलने नहीं गई थी... इस बार मैं माँ के पास रहने गई थी।
उनका हाथ थाम कर डॉक्टर के पास गई, उनका चेक अप कराया।
रात को उनके पास बैठकर खूब बातें कीं—उनकी जवानी की, मेरे बचपन की, पापा की पुरानी यादों की।
माँ मुस्कुराईं, और मैंने बहुत दिनों बाद उन्हें इस तरह मुस्कुराते देखा बार देखा. यह वो मुस्कान जो मैंने ना कितने दिनों से नहीं देखी थी।


उस दिन मैंने सीखा, माँ सिर्फ़ रिश्तों में नहीं होतीं, वो हर उस वक़्त में होती हैं, जो हम उन्हें देते नहीं।


अब मैं महीने में एक बार नहीं, हफ्ते में एक बार माँ के पास जाती हूँ।


क्योंकि जब हम उन्हें समय नहीं देते, तब वो अपना दर्द भी छुपा लेती हैं—और हम समझ ही नहीं पाते कि उनकी खामोशी में कितना कुछ दफ़न है।


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